बेगूसराय, (हि.स.)। रिमझिम फुहारों के साथ सावन का महीना आते ही हर किसी का मन-मयूर झूम उठता है। लेकिन मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम को अपना पाहुन (दामाद) बनाने वाले मिथिलांचल की गलियां कुछ अधिक ही झूमती है और झूमने का कारण भी कोई एक नहीं, कई हैं।
पग-पग मांछ (मछली) और मखान के लिए देश-दुनिया में चर्चित मिथिलांचल अपने कण-कण में लोक कला, लोक संस्कृति, लोक पर्व और लोक उत्सव को समेटे हुए हैं, इन्हीं में से एक है मधुश्रावणी। अनेक सांस्कृतिक विशिष्टताओं को अपने आंचल में संजोए मिथिलांचल का घर, आंगन, बाग, बगीचा और मंदिर परिसर मधुश्रावणी के कारण पायल की झंकार तथा मैथिली गीतों से मनमोहक हो उठती है।
सावन प्रवेश करने के साथ ही मिथिला के घर-घर में भोले शंकर की पूजा शुरू हो जाती है। पांचवें दिन मौना पंचमी के साथ नव विवाहित महिलाओं का सबसे बड़ा त्योहार 14 दिवसीय मधुश्रावणी शुरू हो जाता है। लेकिन इस वर्ष सावन में मलमास रहने के कारण यह लोक त्योहार 44 दिनों तक चलेगा। सात जुलाई से मधुश्रावणी का पर्व शुरू हो रहा है, जिसका समापन 19 अगस्त को होगा। मधुश्रावणी को लेकर हर नव विवाहित महिलाओं के मायके में जोरदार तैयारी की गई है।
नागपंचमी के दिन से शुरू सुहाग की अमरता के प्रार्थना का विशिष्ट पर्व मधुश्रावणी को लेकर सोलहों श्रृंगार से सजी नवविवाहिता जब सखियों के साथ सज-धज कर फूल लोढ़ने के लिए निकलती हैं तो वातावरण मैथिली गीतों से मनमोहक हो जाता है। उनका रूप, श्रृंगार, गीत और सहेलियों में प्रेम देखते ही लगता है कि शायद इंद्रलोक यहीं पर है। मधुश्रावणी पूजन नव विवाहिताओं के लिए किसी तपस्या से कम नहीं है। इस पर्व का समापन अंतिम पूजा के दिन टेमी दागने के साथ होगा।
इसमें प्रत्येक दिन बासी फूल और पत्ता से भगवान भोले शंकर, माता पार्वती के अलावे मैना-विषहरी, नाग-नागिन, गौड़ी की विशेष पूजा होती है। इसके लिए तरह-तरह के पत्ते भी तोड़े जाते हैं, शुक्रवार से शुरु होने वाले पूजा को लेकर नाग-नागिन और उनके पांच बच्चे मिट्टी से बनाए गए हैं। यह पर्व एक तरह से नव दंपतियों का मधुमास है। प्रथा है कि इन दिनों नव विवाहिता ससुराल के दिए कपड़े-गहने ही पहनती है, भोजन भी वहीं से भेजे अन्न का करती है। नव विवाहिता विवाह के पहले साल मायके में ही रहती है।
इसलिए पूजा शुरू होने के एक दिन पूर्व नव विवाहिता के ससुराल से सारी सामग्री भेज दी जाती है। पहले और अंतिम दिन की पूजा विस्तार से होती है, जमीन पर सुंदर तरीके से अल्पना बना कर ढ़ेर सारे फूल-पत्तों से पूजा की जाती है। पूजा के बाद शंकर-पार्वती के चरित्र के माध्यम से पति-पत्नी के बीच होने वाली नोक-झोंक, रूठना-मनाना, प्यार-मनुहार जैसे कई चरित्रों के जन्म, अभिशाप और अंत इत्यादि की कथा सुनाई जाती है।
जिससे कि नव दंपती इन परिस्थितियों में धैर्य रखकर सुखमय जीवन बिताएं, क्योंकि यह सब दांपत्य जीवन के स्वाभाविक लक्षण हैं। पूजा के अंत में नव विवाहिता सभी सुहागिन को अपने हाथों से खीर का प्रसाद एवं पिसी हुई मेंहदी बांटती हैं। यह क्रम लगातार चलते रहता है, फिर अंतिम दिन बृहद पूजा होती है। जिसमें पूजा के दौरान लड़की को सहनशील बनाने की कामना के साथ दोनों पैर एवं घुटनों को दीए की टेमी (दीप की जलती बत्ती) से दागा जाता है।
सबसे खास बात है कि मिथिला में यह एकलौता पूजन है, जिसमें पुरुष का कोई काम नहीं है। ना पूजा में ना विसर्जन में, सभी काम महिलाएं ही करती है। इस दौरान सुबह से रात तक मैथिली देवी गीत, शंकर-पार्वती के गीत, कोहबर के गीत, विवाह के गीत, राम विवाह गीत एवं अन्य पारंपरिक गीत से महिलाएं वातावरण को ओत-प्रोत करते रहती हैं। नवविवाहिता सहित घर एवं पड़ोस की अन्य महिलाएं भी श्रद्धाभाव के साथ सुनती है।
समाज हित, लोक उत्सव एवं कला के संवर्धन को लेकर सजग कौशल किशोर क्रांति कहते हैं कि मिथिलांचल में सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक प्रतीक रूप में मनाए जाने वाला लोकपर्व मधुश्रावणी आज भी जीवंत है। इसमें नव विवाहिता अपने पति की लंबी उम्र के लिए पूजा करती हैं। इसमें मिथिला के प्रसिद्ध लोकगीत समाहित होते हैं। मिट्टी और हरियाली से जुड़े इस पूजा के हर कदम के पीछे पति की लंबी आयु की कामना होती है। मधुश्रावणी कथा और गीत से प्रसन्न होकर माता पार्वती उनके सुहाग की रक्षा करती हैं।