–आगरा की याची के खिलाफ विवाह विच्छेद के बिना दूसरी शादी के आरोप में दर्ज प्राथमिकी पर की गई कार्रवाई को रद्द
–कहा, आईपीसी की धारा 494 के तहत कार्रवाई के लिए वैध शादी का होना जरूरी
प्रयागराज (हि.स.)। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हिन्दू विवाह अधिनियम के मामले में अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि एक वैध विवाह के लिए उचित समारोहों के साथ उचित रूप से विवाह का जश्न मनाना जरूरी है। जब तक विवाह उचित रीति-रिवाजों के साथ मनाया या सम्पन्न नहीं किया जाता तब तक इसे सम्पन्न नहीं कहा जा सकता है। सप्तपदी भी इसका आवश्यक हिस्सा है। यदि विवाह वैध विवाह नहीं है तो पक्षों पर लागू कानून के अनुसार यह कानून की नजर में विवाह नहीं है। भले ही वह दूसरी शादी हो।
मौजूदा मामले में याची-पुननिरीक्षणकर्ता के खिलाफ आगरा के सिंकदरा थाने में दर्ज कराई गई प्राथमिकी में पहली शादी को छूपाकर दूसरी शादी करने का आरोप लगाया गया है। जबकि, दूसरी शादी के सम्बंध में प्रतिवादियों की ओर से कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया है। बयानों में भी सप्तपदी का अभाव है। लिहाजा, याची के खिलाफ आईपीसी की धारा 494 के तहत आरोप निर्मित नहीं होता है। यह आदेश न्यायमूर्ति डॉ. गौतम चौधरी ने निशा की ओर से दाखिल पुननिरीक्षण याचिका को आंशिक रूप से स्वीकार करते हुए दिया है।
कोर्ट ने कहा कि आईपीसी की धारा 494 के तहत अपराध का गठन करने के लिए, यह आवश्यक है कि दूसरी शादी उचित समारोहों और उचित रूप में मनाई जानी चाहिए। हिंदू कानून के तहत ’सप्तपदी’ समारोह वैध विवाह के लिए आवश्यक सामग्रियों में से एक है, लेकिन इस मामले में साक्ष्य का अभाव है। यहां तक कि शिकायत में और साथ ही सीआरपीसी की धारा 200 और 202 के तहत बयानों में ’सप्तपदी’ के सम्बंध में कोई दावा नहीं है। इसलिए, इस न्यायालय का मानना है कि याची के खिलाफ प्रथम दृष्टया कोई अपराध नहीं बनता है। दूसरी शादी का आरोप पुष्ट सामग्री के बिना एक बेबुनियाद आरोप है। इस सम्बंध में ठोस साक्ष्य के अभाव में, यह मानना मुश्किल है।
कोर्ट ने अपने आदेश में यह भी कहा है कि याची के खिलाफ शुरू की गई आपराधिक कार्रवाई दुर्भावनापूर्ण की गई है। जो स्पष्ट रूप से न्यायालय की प्रक्रिया का दुरुपयोग है। कोर्ट ने अपने इन तर्कों के साथ 20 फरवरी 2023 के एसीजेएम के आदेश को रद्द कर दिया। कोर्ट ने कहा कि मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के तहत, यह महसूस होता है कि याची के खिलाफ इस धारा के तहत कार्रवाई की गई तो यह न्याय की हानि है। न्यायालयों का कर्तव्य है कि वह निर्दोष की रक्षा करे। कोर्ट ने जहां अपने इस आदेश के साथ 494 के तहत की गई कार्रवाई को रद्द कर दिया वहीं 504 और 506 के मामले में कार्रवाई में हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया।
मामले में याची के खिलाफ प्रतिवादी (दूसरे पति) ने इस आरोप में शिकायत दर्ज कराई थी कि उसकी शादी पहले विजय सिंह के साथ हुई थी। बिना विवाह विच्छेद की डिक्री लिए और पूर्व पति के जीवित रहते उसने आर्य समाज मंदिर में जाकर उसके साथ शादी कर ली। जब इस बात की उसे जानकारी हुई तो उसने याची से पूछा। इस पर याची उसे झूठे मुकदमें में फंसाने की धमकी दी और 10 लाख रूपये की मांग की। मामले में एसीजेएम कोर्ट ने जांच के बाद संज्ञान लेते हुए याची को सम्मन जारी किया।
याची की ओर से कहा गया कि वह पहले पति विजय सिंह से 16 वर्षों से अलग रह रही है। एक-दूसरे से कोई सरोकार नहीं है। उसने विवाह विच्छेद की डिक्री भी ले रखी है। याची ने प्रतिवादी यानी दूसरे पति और उसके परिवार वालों के खिलाफ आईपीसी की धारा 147, 323, 354(ख), 504, 506 के तहत प्राथमिकी दर्ज कराई है। यह शिकायत उसके विरोध में दर्ज कराई गई है। याची ने आर्य समाज मंदिर में प्रतिवादी से शादी की थी। वह उसे एक किराए के मकान में लेकर रहता था। वहां उसके साथ वह शारीरिक संबंध में रही।
याची ने जब उसके साथ उसके घर रहने के लिए पहुंची तो प्रतिवादी और उसके परिवार के लोगों ने उसके साथ दुर्व्यहार किया। कपड़े फाड़ दिए और उसका एक पैर तोड़ दिया। जिसके बाद प्रतिवादी और उसके परिवार वालों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कराई गई थी। हालांकि, सरकारी अधिवक्ता ने विरोध किया लेकिन कोर्ट ने उसे माना नहीं और याचिका को आंशिक रूप से मंजूर करते हुए 494 आईपीसी की धारा के तहत हुई कार्रवाई को रद्द कर दिया।