क्या आपने कभी किसी सिपाही के ट्रांसफर पर गांव वालों को रोते हुए देखा है। अगर नहीं, तो आपको उन्नाव के रोहित कुमार से मिलवाते हैं। इनके ट्रांसफर पर गांव के बच्चे उनसे लिपट-लिपट कर खूब रोए। यही नहीं, उनके ट्रांसफर से गांव के बड़े-बुजुर्ग भी दुखी हैं।
दरअसल, उन्नाव GRP में तैनात सिपाही रोहित गरीब बच्चों को बीते 4 साल से फ्री पढ़ा रहे हैं। यह वे बच्चे हैं, जो स्टेशन पर भीख मांगा करते थे या फिर बहुत गरीब थे। रोहित ने इन बच्चों को पढ़ाने के साथ प्राथमिक विद्यालय में एडमिशन भी करवाया। साथ ही बच्चों की संख्या बढ़ने पर अपनी सैलरी से दो टीचर भी रखे। अब जब सिपाही रोहित का ट्रांसफर हुआ, तो बच्चे फूट-फूट कर रो पड़े।
झांसी हो गया है रोहित का ट्रांसफर
सिपाही रोहित का तबादला झांसी हो गया। 2018 के जून महीने में 2005 बैच के सिपाही रोहित का ट्रांसफर झांसी सिविल पुलिस से लखनऊ GRP हो गया था। इसके बाद उनको उन्नाव रेलवे स्टेशन मिला। ड्यूटी जॉइन करते ही उनकी कानपुर-रायबरेली पैसेंजर ट्रेन में ड्यूटी लगी। यहीं से उनकी जिंदगी में एक नया मोड़ आ गया।

अब आगे की कहानी आपको रोहित की जुबानी बताते हैं…
“4 साल पहले ड्यूटी के दौरान मैं एक बार ट्रेन से रायबरेली जा रहा था। उन्नाव के बाद कोरारी सबसे पहला हाल्ट स्टेशन पड़ता है। मैंने देखा कि कुछ गरीब बच्चे ट्रेन में भीख मांग रहे हैं। कुछ छोटा-मोटा सामान बेच रहे हैं। मैंने उनमें से एक को बुलाकर उनकी पढ़ाई के बारे में पूछा, तो उन्होंने बताया कि वह पढ़ने नहीं जाते हैं। घर के हालात ऐसे हैं कि बच्चे छोटी उम्र में घर चलाने में सहयोग करते हैं। एक मिनट रुकने के बाद ट्रेन चल दी। इसके बाद मेरे मन में बेचैनी होने लगी। शाम को अपनी ड्यूटी खत्म कर मैं कोरारी गांव पहुंचा। वहां उन बच्चों के साथ उनके परिवार वालों के पास पहुंचा। हालांकि, बच्चों के मां बाप शुरुआत में मेरी बात सुनने से ही इंकार करते रहे। आखिरकार एक-दो बार जाकर किसी तरह मां-बाप को समझाकर 5 बच्चों को पढ़ने को तैयार कर लिया।”
“बच्चों को पढ़ाना था, इसलिए मैंने अपनी ड्यूटी रात में लगवा ली। एक-दो दिन बाद मैं फिर कापी, किताब, पेंसिल वगैरह के साथ कोरारी रेलवे स्टेशन पहुंचा। वहां एक नीम के पेड़ के नीचे 5 बच्चों के साथ पाठशाला शुरू कर दी। मगर, यह सब इतना आसान नहीं था। अगले दिन ड्यूटी खत्म कर जब 10 किमी मोटरसाइकिल चला कर मैं वहां पहुंचा, तो उस दिन बच्चे नहीं आए। मैं फिर गांव पहुंच गया। वहां एक बार फिर बच्चों से लेकर बड़ों तक को समझाया। तकरीबन एक महीने बाद मेरी पाठशाला में बच्चों की संख्या 15 हो गई। यह मेरे लिए किसी अवार्ड से कम नहीं था।”

“इनमें जो लड़के बेहतर होते, उनका एडमिशन मैं स्थानीय प्राथमिक विद्यालय में करवा देता। फिर उन्हें ट्यूशन की तरह अपनी पाठशाला में पढ़ाता। यह सिलसिला चल पड़ा। बरसात में जहां मैं पढ़ाता था, वहां पानी भर गया। इस पर मैंने एक कमरा किराए पर लेकर पढ़ाना शुरू कर दिया। तकरीबन दो महीने तक ऐसा ही चलता रहा। इसकी जानकारी जब डीपीआरओ साहब को हुई, तो उन्होंने पंचायत भवन की चाभी मुझे सौंप दी। अब मेरी पाठशाला पंचायत भवन में लगना शुरू हो गई। यहां बच्चे भी काफी बढ़ गए थे।”
“एक साथ इतने बच्चों को अकेले पढ़ाना संभव नहीं हो पा रहा था। इसलिए कंपटीशन की तैयारी करने वाले पूजा और बसंत को 2-2 हजार रुपए की सैलरी पर रख लिया। अब वह भी मेरे साथ बच्चों को पढ़ाने लगे थे। यह सैलरी मैं अपने पास से देता था। धीरे-धीरे बच्चे बढ़े, तो मददगार भी बढ़े। मेरे साथ कुछ और टीचर भी फ्री पढ़ाने को तैयार हो गए। इस समय दो लोग सैलरी पर तो चार लोग फ्री पढ़ा रहे हैं। बीते 4 साल में डेढ़ सौ बच्चे हो गए हैं।”
“मुझे तो मालूम भी नहीं था कि मुझे बच्चे इतना प्यार करते हैं। 16 अगस्त को मेरे पास ट्रांसफर आर्डर आया है। इसकी जानकारी जब स्कूल को हुई, तो वहां बोले कि बिना मिले नहीं जाना है। मैं भी बिना मिले तो जाता भी नहीं। तो रविवार को बच्चों से मिलने पहुंचा। वहां बकायदा बैंड-बाजा मंगाकर रखा गया था। विदाई के समय बच्चे रो पड़े तो मेरी भी आंखों से आंसू निकल पड़े। मैं इन बच्चों को कभी नहीं भूल सकता हूं। इनसे मुझे जीवन का उद्देश्य मिला है। जब तक यह बच्चे पढ़-लिख कर कुछ बन नहीं जाते हैं तब तक मैं चाहे जहां रहूं, इनका ध्यान रखूंगा। बीच-बीच मैं छुट्टी मिलते ही आता भी रहूंगा।”