लखनऊ(ईएमएस)।कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने व उसके कोटे की सीटें बढ़ाने के पीछे दो अहम फैक्टर माने जा रहे हैं। सूत्रों का कहना है कि रालोद के जाने के बाद सपा के पास उसके कोटे की 7 सीटें खाली थीं। कांग्रेस को पहले ही 11 सीट का वादा किया जा चुका था। इसमें रायबरेली-अमेठी शामिल नहीं थी। इनको मिला लें तो 13 सीटों पर सपा पहले ही तैयार थी। रालोद के जाने के बाद उदारता दिखाना आसान हो गया। अंदरखाने यह भी फीडबैक था कि अल्पसंख्यक वोटरों में कांग्रेस को लेकर रुझान बेहतर हुआ है। प्रदेश की 25 से अधिक लोकसभा सीटों पर अल्पसंख्यक वोटरों की भूमिका प्रभावी है। ऐसे में कांग्रेस के अलग लड़ने से इन वोटरों के बंटवारे का भी खतरा था, जिसका सीधा नुकसान सपा को हो सकता था। हाल में राज्यसभा के टिकट सहित अन्य मसलों को लेकर भी सपा में मुस्लिमों की भागीदारी को लेकर सवाल उठे थे। इसलिए भी सपा ने वोटरों में एका का संदेश देने का दांव खेला है। हालांकि, सीटों के बंटवारे में उसके कोर वोटरों को किसी और के पाले में खिसकने का खतरा न हो, इस पर सपा ने खास ध्यान दिया है। कांग्रेस को मिली सीटों में अमरोहा और सहारनपुर ही ऐसी है, जहां अल्पसंख्यक वोटर चुनाव का रुख बदलने की क्षमता रखते हैं।
यूपी के चुनावी मैदान में कांग्रेस भले 21% सीटों पर उतरेगी, लेकिन जानकारों का मानना है कि गठबंधन में वह अधिक फायदे में है। जो 17 सीटें उसे मिली हैं, उसमें रायबरेली ही उसके खाते में है। जबकि, अमेठी, कानपुर व फतेहपुर सीकरी में कांग्रेस दूसरे नंबर पर थी। बांसगांव में पार्टी ने प्रत्याशी ही नहीं उतारा था। बाराबंकी, प्रयागराज, वाराणसी, झांसी, गाजियाबाद में सपा दूसरे नंबर पर थी। 2019 में कांग्रेस ने 1977 के बाद का सबसे खराब प्रदर्शन किया था और उसके एक सीट मिली थी। वोट 7% से भी नीचे आ गए थे। 2022 के विधानसभा चुनाव में वह 2 सीट पर सिमट गई। इसके बाद भी 17 सीटें मिलना उसके लिए फायदे का सौदा है। सपा का साथ मिलने के चलते अधिकतर सीटों पर कांग्रेस लड़ाई में आ सकेगी। हालांकि, 2019 में सपा व और बसपा जैसे दो बड़े जातीय क्षत्रपों के साथ रहने के बाद भी भाजपा गठबंधन ने यूपी में 64 सीटें जीत ली थीं। अमेठी व कन्नौज में तो सपा, बसपा, कांग्रेस व रालोद सहित पूरा विपक्ष साथ लड़ा था, लेकिन जीत भाजपा को मिली थी। इसलिए, सपा-कांग्रेस को 24 में जीत के लिए जमीन पर और पसीना बहाना पड़ेगा।