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सालों से सांपों से जहर निकालने का काम करती है इरुला जनजाति, हर साल होती है इतने करोड़ रुपये की कमाई  

नई दिल्ली  । दक्षिण भारत की इरुला जनजाति वर्षों से जहरीले सांपों को पकड़कर उनका जहर निकालने का काम कर रही है। इस जनजाति के लोग बिना किसी सुरक्षा के जहरीले सांपों को अपने हाथों से पकड़ते हैं और उनके दांतों से जहर निकालते हैं, जिसका उपयोग एंटी-वेनम बनाने में किया जाता है। इस समुदाय की खासियत यह है कि उनके पास सांपों को पहचानने और पकड़ने की अद्भुत क्षमता होती है।

इरुला जनजाति मुख्य रूप से तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक में पाई जाती है। इस समुदाय की आबादी लगभग तीन लाख है और इनका पारंपरिक पेशा सांपों को पकड़ना और उनका जहर इकट्ठा करना है। इतिहास में यह जनजाति शिकारी समुदाय के रूप में जानी जाती थी और ब्रिटिश शासन के दौरान सांपों की खाल बेचकर जीवनयापन करती थी। लेकिन 1972 में वन्य जीव संरक्षण कानून लागू होने के बाद इस पेशे पर रोक लग गई, जिससे उनकी जीविका पर संकट आ गया। 1978 में अमेरिकी वैज्ञानिक रोमुलस व्हिटेकर ने इस समुदाय की मदद से इरुला स्नेक कैचर्स इंडस्ट्रियल को-ऑपरेटिव सोसायटी की स्थापना की। इस सोसायटी को सरकार से लाइसेंस प्राप्त है, जिसके तहत समुदाय के लोग हर साल 13,000 सांप पकड़ सकते हैं।

वे चार प्रमुख प्रजातियों – किंग कोबरा, करैत, रसेल वाइपर और इंडियन सॉ स्केल्ड वाइपर—का जहर निकालते हैं, जो एंटी-वेनम बनाने के लिए आवश्यक होता है। इरुला जनजाति के लोग बेहद खतरनाक सांपों को पकड़कर उनकी गर्दन दबाते हैं, जिससे वे गुस्से में आकर जहर उगलते हैं। इसे एक जार में इकट्ठा किया जाता है और बाद में फार्मा कंपनियों को बेचा जाता है। इस प्रक्रिया से जनजाति को हर साल लगभग 25 करोड़ रुपये की कमाई होती है। नियमों के अनुसार, सांपों को 21 दिनों तक रखा जाता है और इस दौरान उनसे चार बार जहर निकाला जाता है। आज इरुला जनजाति के लोग शिकारियों से जीवनरक्षक बन चुके हैं।

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