नई दिल्ली: साल 1942, जब भारत में अंग्रेजी हुकूमत का जोर था और द्वितीय विश्व युद्ध चरम पर था। जहां एक ओर अंग्रेज़ हिटलर को परास्त करने हेतु अमेरिकियों के साथ जोड़-तोड़ कर रहे थे, तो वहीं जापानी दूसरी ओर से एशिया के कोने-कोने पर अपना राज स्थापित करना चाहते थे, और ब्रिटेन के उपनिवेश होने के कारण भारतीय गेहूं में घुन की भांति पिस रहे थे। परंतु इसी समय कानपुर में एक ऐसी घटना हुई, जिसने न केवल ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ें हिला दी, अपितु ये भी सिद्ध किया कि परतंत्र रहते हुए भी भारतीय कभी भी अपनी संस्कृति बचाने से पीछे नहीं हटे।
क्या है घटना:
किसी ने एक फिल्म में खूब कहा था, “ये कानपुर है भैया! रिवोल्यूश्नरी कैपिटल ऑफ इंडिया! यहाँ क्रांतिकारी पुलिस के साथ छुपा-छुपी खेलते हैं।” ये नगर अंग्रेज़ों के लिए जितना महत्वपूर्ण था, उतना ही स्वतंत्रता सेनानियों, विशेषकर क्रांतिकारियों के लिए। यहीं पर भगत सिंह से लेकर चंद्रशेखर आज़ाद ने अपने गुणों को निखारा था और यहीं पर हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की सबसे महत्वपूर्ण बैठकें होती थी।