लखनऊ । साल के शुरुआत में समाजवादी पार्टी ‘करो या मरो’ की तर्ज पर चल रही थी। इसका कारण था, मुलायम सिंह के राजनीतिक अवकाश के बाद लगातार अखिलेश यादव की साख का गिरना। इस बार अखिलेश ने पीडीए का नारा दिया और वह लोकसभा चुनाव में चल निकला। केंद्रीय स्तर पर विपक्ष में कांग्रेस के बाद दूसरे नंबर की पार्टी सपा बन गयी। 2024 के चुनाव में सपा को चढ़ाने में जिनकी अहम भूमिका रही, सपा चुनाव बाद उनको ही भूल गयी। इसका खामियाजा उसे विधानसभा उपचुनाव में भुगतना पड़ा।
दरअसल 2024 की शुरुआत में सपा काे राजनीतिक जीवनदान मिल गया था। विपक्षी इंडी गठबंधन के घटक के रूप में सपा और कांग्रेस का उप्र में समझौता हुआ। पांच सीटों तक सीमटी सपा इस बार लाेकसभा चुनाव में 37 पर पहुंच गयी। यह करिश्मा से कम नहीं था। समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता जोश से लवरेज हो गये। इस बीच सपा ने अल्पसंख्यक प्रेम ज्यादा बढ़ाना शुरू कर दिया। अखिलेश यादव का कोई भाषण बिना अल्पसंख्यक के पूरा नहीं होता था।
लोकसभा चुनाव के बाद तो शायद ही उन्होंने कभी पीडीए के एक ‘डी’ अर्थात दलित को कभी याद किया हो। लोकसभा चुनाव में इसी दलित वर्ग ने सपा को चढ़ाया। बसपा से खिसक कर भाजपा की ओर जा रहा दलित सपा की तरफ चला गया था। सपा के 37 सीटें जीतने के पीछे का यह बड़ा कारण माना जा रहा है।अखिलेश इसे बरकरार नहीं रख पाए। विधानसभा उपचुनाव में सब धाराशायी हो गया। नौ विधानसभा सीटों में सिर्फ दो पर सपा जीत पायी। कुंदरकी जैसी सीट जहां पचास प्रतिशत से अधिक मुसलमान हैं, वहां भी भाजपा ने बाजी मार ली।
इसके बाद भी सपा को अभी तक समझ नहीं आया और उसका अल्पसंख्यक प्रेम लगातार बढ़ता जा रहा है। इससे आने वाले समय में वह अपने ही पैर में कुल्हाड़ी मार रही है। इससे उसका दलित वोटर उसके हाथ से निकल चुका है। दलितों को पुन: साथ लाने के लिए सपा कुछ करती हुई नहीं दिख रही। यदि ऐसी ही स्थिति रही तो आने वाले समय में सपा के लिए फिर भारी साबित हो सकता है।
इस संबंध में वरिष्ठ पत्रकार हर्ष वर्धन त्रिपाठी का कहना है कि सपा के साथ यही होता आया है। जब भी वह विजयी होती है, उसके कार्यकर्ता सातवें आसमान पर चढ़ जाते हैं। सपा कार्यकर्ताओं द्वारा अत्याचार बढ़ जाता है और पार्टी पुन: अपना वोट बैंक खो देती है। इसको पार्टी को समझना होगा। उसने वोटर क्यों खोये, उसे इस पर मंथन करना होगा।